लखनऊ, एक ऐसा शहर जो अपनी नवाबी शान और तहजीब के लिए मशहूर है। यहाँ की हर गली, हर नुक्कड़, हर इमारत की दीवारें अपनी अदब और खुशबू की कहानी बयां करती हैं। लखनऊ की बात की जाए और इत्र का जिक्र न हो, ऐसा मुमकिन ही नहीं। इत्र, लखनऊ के रोम-रोम में बसा हुआ है, और यहाँ की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।
इत्र का इतिहास हजारों साल पुराना है। दुनिया में इत्र का इस्तेमाल लगभग 60 हजार सालों से हो रहा है, लेकिन भारत में इसके प्रयोग की शुरुआत सिंधु घाटी की सभ्यता के समय तक जाती है।भारतीय धर्मशास्त्रों और पुराणों में भी इत्र के उपयोग का उल्लेख मिलता है। सुगंध का भारतीय संस्कृति में खास महत्व रहा है, चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो या कामुक प्रथाओं से जुड़ा हुआ हो। बादशाहों और राजा महाराजा के हरमों में इत्र का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता था।जबकि,एक अच्छे इत्र की परिभाषा भी गढ़ी गई है, जिसके अनुसार ‘एक अच्छा इत्र वह होता है, जो तीव्र और सौम्य दोनों प्रकार के सुगंधों के मध्य संतुलन बनाए रख सके।’
इत्र का सबसे पहला निर्माण फारस (Persia) में इब्न सीना (Ibn Sina) ने किया था। मुगलों के आगमन के बाद भारत में गुलाब से इत्र बनाने की परंपरा की शुरुआत हुई और तब से इत्र के विभिन्न प्रकारों का विकास हुआ।
आज के समय में लखनऊ, कन्नौज, और जौनपुर जैसे शहरों में बड़े पैमाने पर इत्र का निर्माण होता है। खास बात यह है कि यह पूर्ण रूप से प्राकृतिक होता है और प्राकृतिक पुष्पों और पौधों से आसवन की प्रक्रिया द्वारा निकाला जाता है।
लखनऊ ने दुनिया को कई नए प्रकार के इत्र दिए हैं, जिनमें ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’ प्रमुख हैं। वर्तमान समय में जहाँ रासायनिक इत्र का बोलबाला है, वहीं लखनऊ का इत्र जगत अपनी विशिष्टता और प्राकृतिक सुगंधों के कारण आज भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।