ऋषभ चौरसियाः-
लखनऊ का सिकंदर बाग, जो आज केवल एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है, दरअसल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे अहम गाथाओं में से एक का मूक गवाह है। इस बाग की मिट्टी में दफन हैं उन वीरों की कहानियां, जिन्होंने 1857 की आजादी की पहली लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी। सिकंदर बाग न सिर्फ एक बाग है, बल्कि आजादी के उन दीवानों का अंतिम पड़ाव है, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत की मशाल थामी और अपने लहू से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की नींव रखी।
शौर्य और बलिदान की धरा
इस संघर्ष के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने अपने मारे गए सैनिकों को सम्मानपूर्वक दफनाया, लेकिन भारतीय योद्धाओं के शवों को सिकंदर बाग की खुली भूमि में ही छोड़ दिया गया। जब तक इन वीरों के शवों को उठाया गया, तब तक उन्हें चील और कौवों ने पूरी तरह से नोच डाला था। यह घटना अंग्रेजी हुकूमत की निर्दयता का एक और उदाहरण थी, जिसने भारतीयों की स्वतंत्रता की आकांक्षा को और भी प्रबल कर दिया।
वाजिद अली शाह का सांस्कृतिक केंद्र
इतिहासकार की माने तो सिकंदर बाग का इतिहास केवल युद्ध और बलिदान तक ही सीमित नहीं है। इसका निर्माण अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी बेगम सिकंदर महल के लिए 1847 से 1856 के बीच कराया था। यह बाग तब सांस्कृतिक कार्यक्रमों का केंद्र था, जहां नवाब और उनकी बेगम ग्रीष्म ऋतु में समय बिताते थे। गुलाम अली रजा खान द्वारा शिल्पित इस बाग की लागत उस समय पांच लाख रुपये थी, जो इसे एक भव्य संरचना बनाती थी।
सिकंदर बाग की वास्तुकला भी देखने लायक है। इसे पैगोडा शैली में बनाया गया है, जिसमें अंदरूनी भाग सफेद रंग की फूल-पत्तियों की डिजाइन से सजा हुआ है। बाग में तीन भव्य प्रवेश द्वार थे, जिनमें से दो को अंग्रेजों ने तोप के गोले से उड़ा दिया था। अब केवल एक प्रवेश द्वार बचा है, जिस पर मछलियों का एक खूबसूरत जोड़ा बना हुआ है। इस प्रवेश द्वार की ऊंचाई करीब 50 फीट से भी अधिक है, जो आज भी इस बाग की शान का प्रतीक है।