आम आदमी के सरोकारों से जुड़ी रैदास की कविता का जादू आज भी बरकरार है. बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि रैदास की कविता मौजूदा सन्दर्भ में पहले से कहीं ज़्यादा शिद्दत से याद आती हैं. यह कविता अपने जनसरोकारों में इस कदर प्रतिबद्ध है कि वह कर्मसौन्दर्य के लिए गंगास्नान, तीर्थादि के भ्रमण को अनौचित्यपूर्ण ठहरा देने का जोखिम तक उठाती है और वह भी उस शहर में जिसकी पहचान ही गंगा के कारण है. वे बेखौफ होकर काशी में अपने चमार होने की घोषणा कर सकते हैं. उनकी आँखों में जिस समतामूलक समाज का सपना परवान चढ़ता है, उसका नाम बेगमपुरा है. वहां समता , न्याय, बन्धुत्त्व और कर्मसौंदर्य जीवन का आधार है.
निर्गुण संतों की यह विशेषता रही कि वे रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से पलायन में मनुष्य मुक्ति का सपना नहीं देखते थे. कबीर धागे बुनते थे तो रैदास जूते बनाते थे. रैदास की कविताओं में कर्मसौंदर्य की पक्षधरता के अनेक स्थल मिल जाते हैं. वे उस धन को त्याज्य मानते थे, जिसमें श्रम न हो. उनसे जुड़े अनेक किस्से लोक में प्रचलित हो गए. स्वाभावत: उनमें अनेक चामत्कारिक बातें भी हैं. पर उनका केवल तात्विक महत्त्व ही है. दरअसल रैदास जैसे संत किसी भी चमत्कार में यकीन नहीं करते थे. नाभादास कृत ‘भक्तमाल’ में एक घटना का ज़िक्र है. रैदास की तंगी देखकर भगवान को दया आ गयी. भगवान साधु रूप में प्रकट हो रैदास को पारस पत्थर का प्रस्ताव दिया. लेकिन रैदास ने उसे लेने से इनकार कर दिया. पूरे प्रसंग के तात्विक महत्त्व समझने का प्रयास `इस कहानी से यह संकेत अवश्य मिलता है कि रैदास की दरिद्रता पर दूसरे साधु पुरुषों को दया आती थी , और वे उनकी आर्थिक सहायता करने के लिए तैयार रहते थे, किन्तु रैदास उस सहायता को लेते न थे. यह रैदास की सम्यक् आजीविका और निस्पृह तथा निर्लोभ वृत्ति का प्रमाण है.’
इसी तरह लोक में एक किस्सा मशहूर है की एकबार जब रैदास जूते बना रहे थे, उसी समय कुछ लोग गंगा स्नान करने जा रहे थे. उनलोगों ने रैदास से कहा कि वे भी गंगास्नान के लिए चलें, लेकिन रैदास ने जाने से मना कर दिया. इस पर लोगों ने तर्क दिया कि स्नान से पुण्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें जाना तो होगा. रैदास ने उस कठौती की तरफ इशारा किया, जिसमें चमड़े को भिंगोने-फुलाने के लिए रखा गया था. आश्चर्य लोगों को उस कठौती में गंगा नज़र आयीं. इस घटना का भी तात्विक महत्त्व है. सम्भवत: रैदास लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि किसी भी अनुष्ठान से अधिक पवित्र काम वह होता है जिससे हमारा जीवन चलता है. कहते हैं उसी समय से यह कहावत प्रचलित हो गयी कि, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’ किसी रचनाकार की सफलता के मानकों की अनेक मान्यताओं में एक मान्यता यह भी है कि उसकी उक्तियाँ लोकमन में इस तरह व्याप्त हो जाएँ कि वे मुहावरे में तब्दील हो जाएँ. कहना न होगा रैदास ऐसे विरल संतों में एक थे.
कर्म सौंदर्य से जुड़ी अनेक उक्तियाँ रैदास वाणी में सहज ही उपलब्ध हैं , जैसे-
‘रविदास मनुष्य का धर्म है करम करहिं दिन रात।
करमह फल पावना नहि काहू के हाथ।।
रविदास श्रम कर खाइए जो लो पार बसाय।
नेक कमाई जो करई कबहूँ न निष्फल जाय।।
धरम करम जाने नहीं मन मह जाति अभिमान।
ऐ सोऊ ब्राह्मण सो भलो रविदास श्रमिकहुं जान।
करम बंधन मह रमि रहियो फल की तजो आस।
करम मनुष्य का धरम है सत भाषे रविदास।।
मेरी जाति विख्यात चमारा:
रैदास ने यह बताया कि वर्णव्यवस्था में यकीन करने वालों की सोच और कर्म किस कदर तंग और मनुष्य विरोधी है. रैदास की भक्ति हारे को हरिनाम नहीं है. यह एक जगे हुए मनुष्य का मनुष्यता के पक्ष में किया गया संघर्ष है. उनके इस स्वाभिमान ने धार्मिक शोषण करने वाले समाज के ठेकेदारों में खलबली मचा दी, क्योंकि उनकी सामजिक स्वीकार्यता बहुत तेज़ी से लगातार विस्तृत हो रही थी. नागरीदास ने लिखा, ‘काहू समय रैदास जू को उत्कर्ष बहुत लोंकनि कौं करत देखि , कितनेक ब्राहमणन आन धर्म अभिमानी हे, तिनके बहुत मत्सरता उपजी.’ अर्थात् किसी समय रैदास जी की प्रतिष्ठा लोक में काफी उत्कर्ष पर पहुंची. इस कारण अनेक ब्राह्मण जिन्हें अपने धर्म पर बहुत अभिमान था, उन्हें रैदास जी से बहुत ईष्या हुई. इस ईर्ष्या का प्रभाव बहुविध ढंग से हुआ. जहाँ रैदास के उन विरोधियों की संख्या बढ़ी जो सत्ता केन्द्रों पर पहले से काबिज थे वहीं उनलोगों के प्रतिरोध को रैदास की निर्भीक मुद्रा के कारण नयी धार मिली जो समरस समाज का सपना देख रहे थे. भक्ति की ऐसी धारा जिसमें भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं. भक्ति या धर्म पर कब्जे की मिल्कियत के ख़िलाफ. जो लोग जात – पांत में धर्म और समाज की पताका फहरा रहे थे, उन्हें रैदास कहते हैं:
‘ऐसो जानि जपो रे जीव, जपी लेउ राम न भरयो जीव।
नामदेव जाति कै ओछ, जाको जस गावै लोक।।
भगत हेत भागता के चलै, अंकमाल ले बीठल मिलै।
कोटि जग्य जो कोई करै, राम–नाम सम तउ न निस्तरै।
निरगुन को गुन देखो आई, देही सहित कबीर सिधाई।
मोर कुचिल जाति में बास, भगति हेतु हरि चरन निवास।।
चारों वेद किया खंडौति, जन रैदास करै दंडौति।।’
इसी तरह अपने एक पद में रैदास उनलोगों से तर्क करते नज़र आते हैं जो चमड़े के काम को घृणास्पद मानते हैं, वे कहते हैं उनके राम चाम के मंदिर में खेलते हैं:
‘जब देखा तब चामे चाम मंदिर खेले राम।
चाम का ऊंट चाम का नगारा चामेचाम बजावन हारा।।
चाम का बछड़ा चाम की गाय चमेचाम दुहावन जाय।
चाम का घोड़ा चाम की जीन चामेचाम करे तालीम।।
चाम पुरुष चाम कीजो चामेचाम मिलावा हो।
कहि रविदास चाम हमारा भाई चाम मंदिर माह हर देह दिखाई।।’
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न:
रैदास जिस आध्यात्मिक संरचना की कल्पना करा रहे थे, वहाँ सबकी मुक्ति के लिए जगह थी. वहाँ व्यक्तिगत मोक्ष के आनंद और नेति-नेति का तिलस्म नहीं था. इस सपने में जीवन की आधारभूत ज़रूरतों के लिए जगह थी, यह पेट भरों का विलास भर नहीं था, बकौल रैदास:
‘ऐसा चाहूँ राज मैं जहं मिले सबन को अन्न।
छोटे-बड़े सब संग रहे , रैदास रहे प्रसन्न।।
उन्होंने जिस समरस समाज का सपना देखा उसका नाम बेगमपुरा है. बेग़ममपुरा यानी बिना ग़म का पुर यानी नगर. रैदास बेगमपुरा की जो तस्वीर पेश करते हैं, उसकी समकालीनता बेजोड़ है. आइए उस पद से बावस्ता होते हैं:
अब हम खूब वतन घर पाया।
ऊंचा खैर सदा मन भाया।।
‘बेगमपुरा सहर को नावँ, दुख- अन्दोह नहीं तेहिं ठावँ।
ना तसवीस खिराज न माल, खौफ न खता न तरस जुवाल।।
आवादाना रहम औजूद, जहाँ गनी आप बसै माबूद।
काइम-दाइम सदा पतिसाही, दोम न सोम एक सा आही।।
जोई सैल करे सोइ भावै महरम महल न को अटकावै।
कह रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सो मीत हमारा।।
अर्थात् अब मुझे अपने वतन में घर मिल गया. वहाँ हमेशा खैरियत रहती है, जो मेरे मन को खूब भाती है. जिस शहर में मैं रहता हूँ वह शहर सभी ग़मों से मुक्त है. उस शहर में दुःख और चिंता के लिए कोई स्थान नहीं है. बेग़मपुरा शहर में न कोई चिंता न कोई घबराहट. वहाँ भगवान का नाम लेने के लिए कोई टैक्स नहीं देना पड़ता. वहाँ किसी का खौफ नहीं, न खता है, न किसी चीज़ के लिए तरस है और न ही अप्राप्ति की अगन. वहाँ सत्य की सत्ता सदा कायम है. इसके सिवा कोई और सत्ता नहीं, वह अटल है. वहाँ रहने वाले अपनी इच्छा के मुताबिक़ भ्रमण कर सकते हैं. वहाँ सत्य रूपी महल में जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है. रैदास अपने बारे में कहते हैं कि मैं खालिस चमार हूँ, उनका कहना है जो हम शहरी है यानी जो इस विचार में यकीन करता है, वही हमारा मीत है। समता और बन्धुत्त्व के इस विचार की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज़्यादा है, क्योंकि चुनौतियाँ पहले से विकट हैं.
(ये लेख प्रो.निरंजन सहाय ने ख़बर तक मीडिया के लिए लिखी है. प्रो. निरंजन सहाय महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं। प्रो. सहाय की ख्याति श्रेष्ठ अकादमिक व्यक्तित्त्व, संवादधर्मी अध्यापक, सभ्यता-समीक्षा समन्वित हस्तक्षेपधर्मी लेखक, पाठयक्रम परिकल्पक एवं शैक्षणिक सामग्री निर्माता के रूप में रही है।)