काशी विद्यापीठ की स्थापना महात्मा गांधी के कर कमलों द्वारा 10 फ़रवरी सन् 1921 को हुई। स्थापना के ठीक एक दिन पहले गांधी जी ने टाउन हॉल बनारस की सभा में कहा कि असहयोग आन्दोलन की सार्थकता महज अंग्रेजी लिबास त्यागने में नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा लक्ष्य है जिसे हासिल करने के लिए देशज ढंग की शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है। काशी विद्यापीठ की स्थापना के पीछे जिन राष्ट्रीय लक्ष्यों को गांधी निर्मित करना चाहते थे वह था श्रम का सम्मान, मानवीय गुणों का विकास और देशज उत्पादन पद्धति को विकसित करने वाली शिक्षा-व्यवस्था। बरतानी हुकूमत के खिलाफ जिस शिक्षा पद्धति की वकालत गांधी जी कर रहे थे उसका मूलमंत्र था शोषण विहीन समाज की स्थापना-करना’।
उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं, जिन्हें स्मरण कर लेना आवश्यक है। उन्होंने कहा, 7 से 14 वर्ष की आयु के बालकों की निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा हो, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो, साक्षरता को शिक्षा नहीं कहा जा सकता, शिक्षा बालक के मानवीय गुणों का विकास करना है शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के शरीर, हृदय, मन और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण विकास हो, सभी विषयों की शिक्षा स्थानीय उत्पादन उद्योगों के माध्यम से दी जाए। कहना न होगा गांधीजी के अनुसार विद्यापीठ की शिक्षा का लक्ष्य था बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में जाये जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का चहुंमुखी विकास करना। वे विद्यापीठ से पायी शिक्षा को सर्वांगीण विकास से सम्बद्ध करने की आकांक्षा रखते थे जिसका लक्ष्य था शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक गुणों का विकास करना।
यह सही है कि उनके सपनों के मुताबिक़ स्वाधीनता संग्राम में विद्यापीठ ने न केवल अग्रणी भूमिका निभाया बल्कि भारत के विचार यानी ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के बुनियादी प्रस्थान बिन्दुओं के निर्माण में भी विद्यापीठ ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया। देश के दिग्गज स्वप्नद्रष्टा की नर्सरी के रूप में विद्यापीठ की ख्याति हुई जब वे वाराणसी आते थे तब अनेक बार विद्यापीठ में भी रुकते थे। उस स्मृति को बापू कक्ष के रूप में विद्यापीठ ने संजोया है। यहाँ उनकी दिनचर्या में गीता पाठ और चरखे पर सूत कातना भी शामिल था। यानी ऐसी शिक्षा जिसमें अध्यात्म और श्रम का मणिकांचन योग हो।
जब गांधी जी के सपनों का विद्यापीठ अपने स्पष्ट लक्ष्य के साथ सक्रिय हुआ तब उस समय के अनेक कौमी विद्यालय और राष्ट्रीय स्कूल विद्यापीठ से सम्बद्ध हुए। यह गांधी के सपनों का कमाल था। उस समय उन्होंने शिक्षा के उद्देश्यों को अनेक भागों में विभाजित किया- पहला शिक्षा का तात्कालिक उद्देश्य निश्चित रूप से उसका लक्ष्य अंग्रजी हुकूमत से मुक्ति पाना था और दूसरा था आत्मनिर्भरता का मन्त्र यानी गांधीजी के अनुसार शिक्षा ऐसी हो जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके बालक आत्मनिर्भर बन सके तथा बेरोजगारी से मुक्त हो। उन्होंने विद्यापीठ की शिक्षा के सांस्कृतिक उद्देश्य की भी कामना की। गांधीजी ने संस्कृति को शिक्षा का आधार माना। उनके अनुसार मानव के व्यवहार में संस्कृति परिलक्षित होनी चाहिए।
वे विद्यापीठ में सम्पन्न होने वाली ऐसी शिक्षा के हिमायती थे जिसका लक्ष्य पूर्ण विकास का उद्देश्य हो उनके अनुसार सच्ची शिक्षा वह है जिसके द्वारा बालकों के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो सके। वे नैतिक अथवा चारित्रिक विकास को शिक्षा का उचित आधार मानते थे। वे शिक्षा को मुक्ति के उद्देश्य के लिए भी संकल्पित मानते थे । उनका आदर्श “सा विधा या विमुक्तये” अर्थात शिक्षा ही हमें समस्त बंधनों से मुक्ति दिलाती है। विद्यापीठ गांधी के सपनों को अपना ध्येय बना अग्रगामी चिन्तन का सदैव प्रस्थान बिंदु बने यही कामना है।

खबर तक मीडिया के लिए ये आर्टिकल प्रो. निरंजन सहाय ने लिखा है.
(प्रो.निरंजन सहाय, हिंदी के लेखक, आलोचक और पाठ्यक्रम परिकल्पक के रूप में ख्यात हैं। फ़िलहाल हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष और महात्मा गांधी काशी विद्यपीठ के निदेशक:शोध और परियोजना पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने चौदह से अधिक सहित्य, शिक्षा और संस्कृति आधारित पुस्तकों का लेखन किया है।)