भारतीय उदारवाद का रास्ता काशी से ही गुज़रकर हासिल किया जा सकता है, यह बात स्वामी विवेकानंद बखूबी समझते थे. विश्व की प्राचीनतम नगरी, जहाँ एक साथ अनेक संस्कृतियों की धाराएँ बहती हों वैदिक-श्रमण, शैव-वैष्णव, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट भक्त-संत आदि-आदि. ऐसा विशिष्ट शहर भला क्यों न विवेकानंद को आत्मीय लगे. वे तीन बार काशी आये थे. रामकृष्ण मिशन के साहित्य में एक किंवदन्ती का ज़िक्र है, जिसके मुताबिक़ माना जाता है कि स्वामी विवेकानंद की मां संतान प्राप्ति के लिए कोलकाता से काशी आईं थीं. स्वामी विवेकानंद के जन्म से पूर्व उनकी मां भुवनेश्वरी देवी ने एक रात स्वप्न में भोले शंकर को ध्यान करते देखा. उस दौरान वह संतान को लेकर बहुत परेशान थीं. मंदिरों में मन्नत मांग रही थीं. उन्होंने इस स्वप्न की बात काशी में रहने वाली अपनी एक महिला रिश्तेदार से बताई.
बाकायदा इस बात का जिक्र ‘स्वामी निखिलानंद जी’ ने अपनी किताब में किया है. विवेकानंद की मां भुवनेश्वरी देवी, पिता विश्वनाथ दत्त काशी आए और सूतटोला स्थित वीरेश्वर मंदिर में पूजा अर्चना की, मन्नत मांगी. बताते हैं कि जब कुछ दिनों बाद यहां से कोलकाता वापस गए तो विवेकानंद, मां की गर्भ में थे. 12 जनवरी, 1863 को उनका जन्म हुआ व मां ने उनका बचपन का नाम वीरेश्वर रखा. बाद में जब स्कूल में गए तो नरेंद्रनाथ नाम रखा गया. वर्ष 1887 में पहली बार 24 वर्ष की अवस्था में स्वामी विवेकानंद काशी आए. गोलघर स्थित दामोदर दास की धर्मशाला में ठहरे. सिंधिया घाट पर गंगास्नान के दौरान बाबू प्रमदा दास मित्र से सामना हुआ. बगैर शब्दों के दोनों के बीच संवाद हुआ. प्रमदा दास स्वामीजी को घर ले आए. इसके बाद स्वामीजी का काशी आने का सिलसिला कायम रहा और पांच बार यहां आए.
‘काशी जर्नल ऑफ सोशल साइंस’ में भी स्वामी विवेकानंद की काशी यात्रा के दिलचस्प तथ्यों को सामने लाया गया. शोध के मुताबिक़ 1888-1890 में काशी यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानंद ने बंगाली परिवार और यहां के पंडितों से मुलाकात की थी. तुलसी घाट पर स्थित अखाड़ा ‘गोस्वामी तुलसीदास’ में वे तीन दिन तक रुके थे. उन्होंने बनारसी पहलवानों से दंड बैठकी, मुगदर, गदा और नाल जैसे दांव-पेंच सीखे थे. पंडित देवव्रत शास्त्री ने एक किताब ‘तुलसी घाट और विवेकानंद’ लिखी है. इसमें जिक्र किया गया है कि उस वक्त अखाड़े के महंत तुलसीराम थे. वे वेद-शास्त्र और संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे. संतों, योगियों, ब्रह्मचारियों और विद्वानों का तुलसी घाट पर शास्त्रार्थ होता था. बताया जाता है कि तुलसीराम जब सुबह गंगा स्नान के लिए जा रहे थे, तब उन्होंने ध्यानमग्न नरेंद्रनाथ (जो बाद में स्वामी विवेकानंद बने) को देखा था. परिचय पूछने पर उन्होंने अपना नाम विश्वेश्वर बताया था. तुलसीराम ने ही उन्हें पहलवानी सीखने के लिए कहा था.
लक्सा स्थित रामकृष्ण मिशन अस्पताल की नींव रखने वाले केदारनाथ, जामिनी रंजन और चारुचंद्र दास इन तीन युवाओं से स्वामी विवेकानंद खुद मिलने काशी आए थे. स्वामी विवेकानंद से ही प्रेरणा लेकर इन तीन युवाओं ने गंगा किनारे रामापुरा में दो कमरे के मकान में गरीबों और असहायों की सेवा करनी शुरू की थी. स्वामी जी 1902 में जब अपनी दूसरी विदेश यात्रा से लौटे तो सबसे पहले काशी आए। काशी आने पर उन्हें लोगों ने बताया कि आपकी प्रेरणा से यहां के युवाओं ने एक चिकित्सालय की स्थापना की है. वे बेहद खुश हुए और उनसे मिलने पहुंच गए. जब उन्होंने अस्पताल का नाम देखा तो गंभीर हो गए. युवाओं ने अस्पताल का नाम रखा था ‘पूअर मेंसरिलीफ एसोसिएशन.’ इस पर स्वामी जी का सवाल था-‘आप राहत देने वाले कौन होते हैं?’ स्वामी विवेकानंद ने खुद उस अस्पताल का नाम रखा ‘होम ऑफ सर्विस’. बाद में यह रामकृष्ण मिशन से जुड़ गया. मिशन के सचिव स्वामी ऋतानंद बताते हैं कि देश भर में रामकृष्ण मिशन है लेकिन काशी में ये इकलौता ‘राम कृष्ण मिशन होम ऑफ सर्विस’ है.
अंतिम दिनों की भी साक्षी बनी काशी
स्वामी विवेकानंद ने काशी की अंतिम यात्रा 1902 में की थी. उस दौरान वह बीमार थे. वह ‘गोपाल लाल विला’ में ठहरे व एक महीने तक यहीं स्वास्थ्य लाभ किया. इसी परिसर में चल रहे प्रशिक्षण संस्थान के ज्यादातर अध्यापकों व विद्यार्थियों तक को यह नहीं पता है कि उनके पीछे खंडहरनुमा भवन में कभी स्वामी विवेकानंद जैसी महान विभूति ठहरी थी. 14 मार्च, 1902 को यहां से बहन निवेदिता को भेजे पत्र में लिखा था कि ‘मुझे सांस लेने में काफी तकलीफ है. यहां आम, अमरूद के बड़े-बड़े पेड़ हैं, गुलाब का खूबसूरत बगीचा है और तालाब में सुंदर कमल खिले रहते हैं. ये जगह मेरे स्वास्थ्य के लिए उत्तम है. यहां से कुछ मील दूर बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ भी है.’ (पत्रवली नामक किताब में यह प्रकाशित है). कुछ दिन बाद स्वास्थ्य खराब होने के कारण स्वामीजी बेलूर मठ चल गए. चार जुलाई, 1902 को महामानव विवेकानंद महासमाधि में लीन हो गए. 39 वर्ष पांच माह और 24 दिन की आयु में उन्होंने शरीर त्याग दिया.

खबर तक मीडिया के लिए ये आर्टिकल प्रो. निरंजन सहाय ने लिखा है.
(प्रो.निरंजन सहाय, हिंदी के लेखक, आलोचक और पाठ्यक्रम परिकल्पक के रूप में ख्यात हैं। फ़िलहाल हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष और महात्मा गांधी काशी विद्यपीठ के निदेशक:शोध और परियोजना पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने चौदह से अधिक सहित्य, शिक्षा और संस्कृति आधारित पुस्तकों का लेखन किया है।)